हिंदुस्तान के रुस्तम नाम से पहचाने जाने वाले गामा पहलवान की आज हुई मृत्यु, यहाँ लड़ी थी जिंदगी की आखरी बड़ी कुश्ती
गामा पहलवान ने अपने दौर में वो शोहरत हासिल की थी जो की हर एक पहलवानों का ख्वाब हुआ करता है, आज उनके गुजरे हुए एक अरसा बीत चुका है, फिर भी लोगों के लिए आज भी वो जिन्दा हैं, गामा पहलवान उस वक़्त सबसे ज़्यादा चर्चा में आये थे जब उन्होंने हिंदुस्तान के सबसे बड़े पहलवान रुस्तम ए हिन्द रहीम बख्श सुल्तानी को इलाहाबाद की कुश्ती में हराया था और “रुस्तम ए हिन्द” का खिताब अपने नाम कर लिया था। हालांकि रहीम बख़्श उस वक़्त तक उम्रदराज हो चुके थे।
न सिर्फ हिंदुस्तान में बल्कि हिंदुस्तान से बाहर भी गामा पहलवान का एक बड़ा नाम था। लंदन की कुश्ती में गामा पहलवान फाइनल में पहुंचे तो उनका मुकाबला वर्ल्ड चैंपियन ज़िबिस्को से हुआ, पहला मुकाबला तो टाई हो गया, और दूसरे मुकाबले में हार के डर से ज़िबिस्को मैदान में ही नही आए बिना लड़े गामा को 7 सितंबर 1910 को वर्ल्ड चैंपियन घोषित कर दिया गया।
बिना एक भी कुश्ती हारे गामा दुनिया के सारे बड़े पहलवानों को हरा चुके थे। कई साल तक उनके बराबरी का कोई पहलवान नहीं मिला। 1940 का वक्त था गामा की उम्र 60 साल के क़रीब हो चुकी थी उन्होंने पहलवानी भी कम कर दी थी लेकिन फिर भी हैदराबाद के निज़ाम के बुलावे पर वह कुश्ती के लिए हैदराबाद गए। उस उम्र में भी गामा ने एक-एक कर के निज़ाम के सारे पहलवानों को हरा दिया। आख़िर में निज़ाम ने अपना सबसे बेहतरीन युवा पहलवान हीरामन यादव को भेजा। हीरामन यादव की हैदराबाद में काफी शोहरत थी व हैदराबाद का एक बड़ा नाम था और वो भी अभी तक नाकाबिले तसख़ीर था। दोनो की बीच मुक़ाबला काफी देर तक चला लेकिन कोई नतीजा नही निकला और आखिर में मुक़ाबला बराबरी पर खत्म हुआ। गामा पहलवान की ये आखरी बड़ी कुश्ती थी।
गामा पहलवान का जितना बड़ा जिस्म था वो उससे भी बड़े दिल के मालिक थे। 1947 में बंटवारे के वक़्त गामा ने अपने मुहल्ले में एक भी दंगाइयों को घुसने नहीं दिया उन्होंने लाहौर के सभी हिंदू और सिख भाइयों की हिफाज़त की और उन्हें सही सलामत भारत भेजा।